सिनेमा समाज का दर्पण है! सच है कि सिनेमा के निर्माण में समाज से जुड़े अनेक घटनाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, साथ ही साथ समाज की घटनाओं को आधार बनाकर सिनेमा मनोरंजन और सूचना के लिए सिनेमा बनाया और दिखाया भी जाता है। ऐसे सिनेमा निर्माता, निर्देशक और अभिनेता और अन्य जुड़े लोग क्या, कभी उस समाज के बारे में भी कुछ सोचते हैं या नहीं, यदि सोचते है तो किस रूप? या सिर्फ सिनेमा के विषय-वस्तु तक ही रह जाते हैं या समाज उसी हाल में पीछे ही छुट जाता है, या उस विषय विशेष के आधार पर सिनेमा निर्माता, अभिनेता, अभिनेत्री जीवंत किरदार के साथ अनेक पुरस्कार, मेडल प्राप्त कर लेते हैं। वह समाज और उस समाज के लोग अपने आप को कहाँ पाते हैं? उस समाज के लोग, वह गांव, शहर, किसान, दुकान, खेत-खलिहान अपने आपको कहाँ खड़ा पाते हैं? आदि के बारे कुछ पड़ताल किया गया है इस शोध आलेख में......
Sunday, 1 November 2015
Sunday, 25 October 2015
हिंदी के विकास एवं विस्तार में
मीडिया का योगदान
शम्भू
शरण गुप्त
शोध अध्येता - जनसंचार
संचार
एवं मीडिया अध्ययन केंद्र
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यलय, वर्धा,
महाराष्ट्र
मनुष्य
एक सामाजिक प्राणी है। समाज में भावों व विचारों के आदान-प्रदान के लिए माध्यम की
अवश्यकता होती है। वह माध्यम मौखिक, लिखित व
सांकेतिक किसी भी रूप में हो सकती है। यदि भाषा नहीं होती, तो
समस्त मानव समाज पशु समाज की तरह मुक होता। इस संसार में सभ्यता और संस्कृति के
विकास का मूल आधार भाषा ही है। भाषा अपने विशाल भाषिक एवं सामाजिक संस्कृति का
प्रतिबिम्ब तथा राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक होती है। भाषा एक प्रवाहमान नदी की जल
की तरह है। हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति की प्राण है जिसमें देश तथा काल की आत्मा
मुखरित होती है। यह समाज और देश को सुंदर व एक व्यवस्थित जीवन प्रदान करती है।
प्रौद्योगिकी के विकास के साथ विभिन्न बोलियों से मिलकर बनी हिंदी का भी अनेक
रूपों में विकास और विस्तार हो रहा है।
तकनीकी
विकास से मीडिया के सभी माध्यमों हिंदी मुद्रित माध्यमों व वेब संस्करणों, हिंदी टीवी चैनल, एफएम रेडियो, हिंदी सिनेमा और सोशल मीडिया के फेसबुक और टि्वटर के सकारात्मक भूमिका ने
हिंदी क्षितिज का विस्तार और विकास किया है। जिस हिंदी भाषा ने पत्रकारिता के
माध्यम से स्वाधीनता आंदोलन से लेकर देश को आजादी दिलाने में एक प्रबल वाहक के रूप
में एक पाँव पर खड़ी रही, वही मीडिया इस हिंदी भाषा का प्रबल
और विराट वाहक बनकर उसका वैश्विक विस्तार एवं विकास कर रहा है। लेकिन हिंदी के
प्रति सामाजिक और राष्ट्रीय अनुराग का जो भाव उस समय हुआ करता था, वह आज नहीं दिखाई देता है।
हिंदी
भाषा की उपादेयता नवमध्य वर्ग की भाषा है, बहुसंख्य
लोगों की भाषा है, साहित्यकार और कवियों की भाषा है, सिनेमा की भाषा है, देश से प्रकाशित चोटी के दस
अखबारों में से प्रथम तीन और दो क्रमशः छठवें व सातवें अखबारों की भाषा है और
खबरिया व मनोरंजन चैनल की भाषा के रूप में है। संयुक्त अरब अमिरात का ‘हम एफ-एम’, जर्मनी का डॉयचे वेले, जापान का एनएचके वर्ल्ड, चीन का चाइना रेडियो
अंतर्राष्ट्रीय बीबीसी की भाषा है। हिंदी इतने लोगों के साथ-साथ यह मीडिया की जीवन
रेखा भी है। बावजूद इसके मीडिया के लिए हिंदी बाजार, विज्ञापन
और व्यवसाय की भाषा है। जबकि हिंदी मीडिया को व्यापारिक व बाजार विस्तार दोनों लाभ
प्रदान करती है। वैश्वीकरण ने हिंदी को विस्तार तो दिया है परंतु अंग्रेजी ने जॉब
के आधार पर मजबूत होने से हिंदी कमजोर हुई है।
मीडिया
विज्ञापन कलात्मकता के सहारे उत्पाद विक्रय के लिए ग्राहकों को आकर्षित करता है।
बाजारवाद के युग में हिंदी भाषा पूरी दुनिया की एक महत्त्वपूर्ण भाषा होने के नाते
हिंदी भाषा में विज्ञापन का बाजार अधिक है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी अपने उत्पाद विक्रय
के लिए हिंदी भाषा में विज्ञापन कर रही हैं। लेकिन इससे हिंदी भाषा की सुंदरता और
स्वाभाविकता विकृत हो रही है जो किसी भी रूप में हिंदी के लिए हितकर नहीं है।
बल्कि हिंदी भाषा को रोजगारपरक शिक्षा के रूप में राष्ट्रीय कार्य योजना में
बिजनेस मॉडल के रूप में क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी मीडिया की अहम भूमिका है।
हिंदी
भाषा उत्पादन, उपार्जन, ज्ञान-प्रधान
समाज, लोक व्यवहार को समझने की, इन्नोवेशन
एवं उद्यमिता की प्रवृत्ति की आवश्यकता एवं सिफारिशों की भाषा बननी चाहिए। यह सत्य
भी है कि उत्तराधिकार में प्राप्त अंग्रेजी लघु स्तर पर ही संपन्न हो सकती है,
लेकिन वृहद धरातल पर हिंदी की सरलता, सुंदरता, समाजिकता और संपन्नता ही काम आएगी। इसे सेवा भाव और राष्ट्रीय भावनाओं से
पुनः एक बार और जोड़ने की जरूरत है।
सूचना
संचार प्रौद्योगिकी ने मीडिया के माध्यम से आज पूरी दुनिया को आपस में जोड़ दिया
है। दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई घटना घटित होती है और पूरी दुनिया उसे
मीडिया के द्वारा जान लेती है। आधुनिक तकनीकी विकास के फलस्वरूप मीडिया के सामाजिक
ढांचे में गति उत्पन्न हुई है। इंटरनेट पूरी दुनिया में एक बड़ी उपलब्धि लेकर आयी
है। जिसने देश और काल की सीमा को समाप्त करते हुए एक नेटवर्क से जोड़ दिया है। आज
व्यापार,
शिक्षा राजनीति और म्ननव जीवन के अनेक क्षेत्रों में बड़ी क्रांति हो
रही है। कंप्यूटर के साथ मोबाइल फोन को जोड़ देने से ज्ञान का अथाह सागर हर वक्त
मुट्ठी में रहता है। यूनिकोड के पदार्पण ने हिंदी भाषा को समूची दुनिया तक
प्रसारित करने में मदद कर रहा है।
विदित
है 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिंदी का
अंतर्राष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ है। विज्ञापन, वेब, सिनेमा, संगीत और बाजार
के क्षेत्र में हिंदी की मांग इसका विस्तार एवं विकास स्पष्ट होता है। हिंदी की
सामर्थ्यता के बारे में बी.बी.सी. के भारत स्थित पूर्व प्रतिनिधि मार्क टूली ने
अप्रैल 26, 2009 को प्रभात खबर में लिखा हैं कि - ‘हिंदी दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है, जबकि भारत में बमुश्किल से पांच फीसदी लोग अंग्रेजी समझते हैं। यही पांच
फीसदी लोग बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। हिंदी और अन्य भारतीय
भाषाओं पर अंग्रेजी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे भी ज्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य
को बरकरार रखना है।’
मीडिया
ने हिंदी भाषा को वैश्विक भाषा के सिंहासन पर आसीन कर दिया है। मीडिया ने हिंदी को
विविध रूपों में विकसित करने का सरहनीय प्रयास किया है। हिंदी अनेक रूपों में
विकसित हुई है लेकिन अभी कुछ गंभीर चुनौतियां भी सामने हैं। वैश्विक बाजार के इस
संक्रमण काल में हिंदी भाषा का विकास और विस्तार हुआ है परंतु इसके प्रयोग में भी
मनमानी रवैया अपनायी जा रही है। हिंदी मात्र केवल बाजार की भाषा नहीं है, इसकी अपनी एक लंबी विरासत और परंपरा रही है। इसे अनेक महापुरुषों, समाज सुधारकों, चिंतक-मनीषियों और साहित्यकारों ने
अपने खून-पसीने से इसे सींचा है। लेकिन अब हिंदी के विकास और विस्तार के कसौटी को
रोजगार से जोड़ने की जरूरत है। इस भाषा के बोलने और जानने वालों की कमी नहीं है।
रोजी-रोटी के साथ हिंदी भाषा के जुडते ही इसकी समृद्धता और बढ़ जाएगी और लोग खुद
चलकर हिंदी सीखने और पढ़ने के लिए हिंदी शिक्षा केंद्रों की तरफ बढ़ेंगे जिस प्रकार
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पाद विक्रय के लिए भारत और हिंदी भाषा की ओर तेजी
के साथ बढ़ी है।
जनसंपर्क
और सोशल मीडिया का अंतर्संबंध
शम्भू शरण गुप्त
शोध अध्येता – जनसंचार
संचार एवं मीडिया
अध्ययन केंद्र
महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
सोशल मीडिया सूचना संप्रेषण
का एक त्वरित और प्रभावी माध्यम है। आयोजित या आकस्मिक घटने वाली प्रमुख घटनाओं को
चित्र और विडियो के साथ तत्काल सोशल मीडिया पर देखा और सुना जा रहा है। महत्त्वपूर्ण तकनीकी, संवादात्मक और पारदर्शी विस्तार के साथ सोशल
मीडिया संगठनों और संस्थाओं को जहां अपनी बात जनता के साथ इंटरैक्ट होने के लिए
भरपूर मौका दिया है। यह सामाजिक, राजनैतिक तथा व्यवसायिक
गतिविधियों आदि के वैश्विक विस्तार का एक उपयुक्त व सस्ता माध्यम भी है और वर्तमान
में समाज के समय का निर्धारण धीरे-धीरे सोशल मीडिया से नियंत्रित होने की ओर
अग्रसर है अर्थात आज जो सोशल मीडिया पर
नहीं है वो समाज में ही नहीं है। लिहाजा व्यक्ति के साथ-साथ निजी-सरकारी संस्थाएं
और राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनिययां भी सोशल मीडिया को जनसंपर्क उपकरण के रूप में
इस्तेमाल करने लगी हैं। कंपनियों को जनसंपर्क के लिए सोशल मीडिया ने बड़ा स्पेस और
24 x
7 का समय भी दिया है। सोशल मीडिया जनसंपर्क के आडिएंस एक-दूसरे से
इंटरकनेक्ट होते हैं जबकि परंपरागत मीडिया के नहीं।
सोशल मीडिया के आविर्भाव के पहले तक जनसंपर्क
से संचार संबंधित सभी क्रिएटिविटी परंपरागत व्यवस्था के साथ-साथ प्रिंट व
इलेक्ट्रानिक मीडिया तक थी। उसी अनुसार कॉर्पोरेट कंपनियां अपनी जनसंपर्कीय रणनीति
तय करते थे। लेकिन आज कंपनियां विभिन्न जनता के साथ निरंतर बने रहने एवं इंटरैक्ट करने
के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही हैं। उपभोक्ताओं से सीधे जुड़ने के लिए
कंपनियां सोशल मीडिया पर अपना सालाना बजट भी बना रही हैं। जैसा कि “हिंदुस्तान युनिलीवर लिमिटेड कंपनी 2013 में
अपने 2012 के संपूर्ण विज्ञापन बजट का 7 प्रतिशत और 2014 में 2013 के संपूर्ण विज्ञापन
बजट का 10 प्रतिशत हिस्सा सोशल मीडिया पर खर्च करने का बजट बनाया था।”[1] और तो और
त्योहार करीब आने पर कंपनियां प्रचार-प्रसार के लिए परंपरागत रास्तों से हारकर
फेसबुक और यू-ट्यूब जैसे सोशल मीडिया का सहारा ले रही हैं। “पैनासोनिक कंपनी 2014
में त्योहारों के दौरान ब्रांडिंग मुहिम पर 85 करोड़ रुपये से अधिक खर्च की थी
जिसका एक बड़ा हिस्सा न्यू मीडिया पर खर्च किया था।”[2]
सोशल मीडिया बहुआयामी तरीके से लोगों को
जोड़ता और बांधे रखता है। विकसित देशों में बहुत से व्यवसाय तो सीधे-सीधे सोशल मीडिया पर ही निर्भर हैं। अधिकाधिक कंपनियां
सोशल मीडिया को जनसंपर्क उपकरण के रूप में अंगीकार कर चुकी हैं। जैसा उक्त तथ्य मधुसूदन
आनंद के निम्नलिखित बातों से यह स्पष्ट समझा जा
सकता है - “सोशल मीडिया को मार्केटिंग से जोड़ते हुए बताया गया है।
मार्केटिंग के लोग हो या मार्केट रिसर्च के, जनसंपर्क के
लोग हो या विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम करने समूह सब टि्वटर या फेसबुक आदि के
जरिए आपस में जुड़ना चाहते हैं।”[3]
सोशल मीडिया पर अपनी अभिव्यक्ति
लाइक-डिसलाइक, मित्रों के साथ शेयर
करने, कमेंट्स लिखने और भविष्य में भी जब चाहे उसे देखने
इत्यादि जैसी सुविधाएं बिना गेटकीपर के मौजूद है। सोशल मीडिया सीधे इंटरैक्ट करने
वालों के अलावा उनके दोस्तों और दोस्तों के दोस्तों की इतनी लंबी श्रृन्खला तक
अपनी पंहुच चुका है। इस तरह का संचार के अभिप्रेरणा सिद्धांत (Motivational
Theory) काम करता है। उक्त तथ्य को समझने के लिए ओमप्रकाश सिंह की
बातों से और स्पष्ट होता है – “इस संबंध में अधिक प्रयास विज्ञापन एवं जनसंपर्क
क्षेत्र के उद्योगों के उत्पादों को बेचने एवं सेवा के लिए किया जाता है। इसके
पीछे यह भावना रहती है कि हम किस प्रकार सामान्य जन को अभिप्रेरित कर सकते हैं”[4] इसके अलावा सोशल
मीडिया और जनसंपर्क के बीच संचार प्रक्रिया मल्टीपल फ्लैक्सिबल सिद्धांत के अनुसार
यूजर्स घटते-बढ़ते रहते हैं। चूंकि सोशल मीडिया पर संचार प्रक्रिया 24 x 7 लाइव होने के बावजूद जबतक दोनों छोर से इंटरैक्ट न करने पर जनसंपर्क और
सोशल मीडिया की प्रक्रिया ठप्प रहती है।
कंपनियों को सोशल मीडिया के द्वारा
व्यापक जनता तक अपनी सेवाओं के बारे में जानकारी देते हुए अपना विस्तार कर रही
हैं। उक्त तथ्यों को दैनिक भास्कर में प्रकाशित ‘कंज्यूमर से जोड़ने में ग्लोबल कंपनियों की पहली पसंद बना सोशल मीडिया’ से और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है – “फेसबुक, टि्वटर और गूगल प्लस जैसी सोशल वेबसाइट्स आम
यूजर्स के अलावा कंज्यूमर उत्पाद बनाने वाली कंपनियों की पहली पसंद है। ये
कंपनियां अपने उत्पादों को यूजर्स तक पहुंचाने के लिए सोशल साइट्स के प्लेटफार्म
का उपयोग कर रही हैं। 400 से ज्यादा कंपनियां ऐसी हैं, जो किसी न किसी सोशल प्लेटफार्म का उपयोग करके यूजर्स से जुड़ी रहती हैं।
इनमें फेसबुक, टि्वटर, लिंक्डइन, पिंटरेस्ट, और गूगल प्लस शामिल है। जिस तरह यूजर्स
की पहली पसंद फेसबुक है, उसी तरह कंपनियों की भी पहली पसंद
फेसबुक ही है। 40 प्रतिशत कंपनियां सोशल मीडिया पर अपने प्रचार के लिए एजेंसियां
हायर करती हैं। इसमें ब्लॉग बनाना, पोस्ट के साथ उत्पाद की
जानकारी शेयर करना और लिंक अटैच करना शामिल है। ऐसा करने पर कंपनियों को कुछ राशि
खर्च करनी पड़ती है, लेकिन उन्हें सफलता भी ज्यादा मिलती है।”[5] अभिव्यक्तियाँ
भी बोलती हैं, उसका
स्थान और समय कुछ भी हो। पर जब बात सोशल मीडिया की हो जिसका जन्म ही स्वतंत्र
अभिव्यक्ति के लिए माना जाता है। सोशल मीडिया का
प्रत्येक प्रोफाइल एक शख्स के रूप में है, जिसका अपना एक व्यक्तित्व
होता है जिसका अपना एक सोशल मीडिया आईपी पता भी होता है जिसके आधार पर कंपनियां
उसके व्यक्तित्व, पसंद, उम्र, लिंग आदि से जुड़े पर्याप्त कंटेंट के बारे जानकारी कर लेते हैं। इन कंटेंट्स
के आधार पर सोशल मीडिया की ओर कंपनियों ने रुख किया है।
जनसंपर्क और सोशल मीडिया
संप्रेषण और जनसंचार दोनों करता है। सोशल मीडिया
पर यूजर्स को अनेक तरह से अपनी अभिव्यक्ति करने की सुविधा दे रखा है। इसलिए
जनसंपर्क के लिए सोशल मीडिया किसी कंपनी, संस्था और
व्यक्तिगत तौर पर इस्तेमाल के लिए बहुत ही उपयोगी है। जैसा कि जनसंपर्क संबंधित या
जुड़े लोगों के साथ संप्रेषण करता है और उत्पाद आदि की जानकारी देने के लिए मास
स्तर पर जनसंचार करता है। जनसंपर्क विभाग कंपनी के
आंतरिक और बाह्य जनता से अधिकृत रूप से पल-पल सूचना देने, फोटों शेयर करने, वृत्तचित्र
या उत्पाद के वीडियो दिखाने जैसे जनसंपर्क के अनेक काम सोशल मीडिया के द्वारा त्वरित
रूप में कर रहा है। सोशल मीडिया पर इतनी बड़ी जनसंख्या (यूजर्स) का होना ही
जनसंपर्क के लिए बेहद सकारात्मक अतिरिक्तता ही नहीं बल्कि संख्या के आधार पर सोशल मीडिया खुद अपने आप में
बहुत प्रभावशाली उपकरण है । जनसंपर्क में फीडबैक एक
अनिवार्य तत्व है, बिना उसके जनसंपर्क प्रक्रिया पूरी नहीं होती है। जबकि सोशल
मीडिया फीडबैक के रूप में अनेक तरह के विकल्प यूजर्स को दे रखी हैं सिर्फ आपको
तत्काल प्रभाव से उसे लागू करना होता है। जनसंपर्क के परंपरागत उपकरणों की तुलना
में सोशल मीडिया सस्ता, सरल और तुरंत फीडबैक देने वाला उपकरण
है। बहुत ही अल्प समय में अपलोड की गई सारी सूचनाएं पूरी दुनिया के यूजर्स को न
सिर्फ मिलती हैं बल्कि यूजर्स द्वारा उन्हें मिलने वाले लाइक, कमेंट्स और अपने मित्रो को भी शेयर करने की विकल्प ने सोशल मीडिया और
जनसंपर्क के अंतर्संबंधों को बिलकुल नए
आयाम दिए वो भी पूर्ण महत्त्व के साथ।
सोशल मीडिया
जनसंपर्क गतिविधियों का विस्तार करने एवं सीमित संसाधनों में बेहतर कार्य करने में
सहायक हो सकता है। आज जनसंपर्क का दायरा व्यापक करने के लिए सोशल मीडिया
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सोशल मीडिया अपने उपभोक्ताओं को महत्त्वपूर्ण
बना दिया है कि कंपनियां उनके कमेंट्स और लाइक्स को अपना कंटेंट मानती हैं।
परंपरागत विज्ञापन माध्यमों की सीमा रेखा को समझते हुए कंपनियां उत्पादों को
अधिकतम लोगों से सीधे जुड़ने लिए सोशल मीडिया को अपनायी हैं। यानि ‘हाथी के पांव में सबका पांव’ वाली स्थिति सोशल मीडिया
पर पूरी तरह से लागू होता है क्योकि सोशल मीडिया सभी प्रकार के संचार मीडिया को
अपनी सीमा के अंदर समेट लिया है। सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों ने तो इस मंच
का भरपूर लाभ उठाया। पर्सनल कंप्यूटर निर्माता डेल इंक से लेकर स्टोरेज उपकरण
निर्माता कंपनी नेटएप्प इंक और हिंदुस्तान युनिलीवर, एमवे और प्राक्टर एंड गैम्बल तक सभी एफएमसीजी कंपनियां जनसंपर्क साधने के लिए सोशल मीडिया के जरिए
करोड़ों लोगों तक पहुँच रही हैं। कंपनियां सोशल मीडिया पर ब्रांड्स इन ब्रांड्स का
प्रभावी एवं औपचारिक तरीकों से जिस तरह प्रमोशन कर रही हैं, उनके पीछे सोशल मीडिया और
जनसंपर्क की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
[1] Vijayaraghavan, Kala. (2013, Mar 28,). Hindustan Unilever Ltd forays
into digital advertising space in a big way.
[2] नवभारत, (2014, सितंबर 22). “उपभोक्ताओं को आकर्षित करने
कंपनियां कर रहीं हैं सोशल मीडिया का उपयोग.”
[3] आनंद, मधुसूदन. कितनी लंबी है एक क्लिक की दूरी?, मीडिया
विमर्श पृ. 14-15.
[4] ओमप्रकाश
सिंह, (2002). संचार के मूल सिद्धांत. पृ. 219.
[5] दैनिक भास्कर, (2014, मई 26). “कंज्यूमर से जोड़ने में ग्लोबल
कंपनियों की पहली पसंद बना सोशल मीडिया.”
Friday, 26 June 2015
योग
से ही जीवन है
शम्भू
शरण गुप्त
शोध
छात्र- पीएच. डी. (जनसंचार)
संचार
एवं मीडिया अध्ययन केंद्र
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
योग समग्र जीवन का एक ऐसा विज्ञान है जिसका
हजारों साल से भारत के इतिहास में अपना एक अमूल्य स्थान है। यह मानव जीवन से भिन्न
और पृथक नहीं है बल्कि यह मानव जीवन का अभिन्न अंग है। यह हमारे समग्र जीवन की
क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है। योग एक लक्ष्य है और इसके लिए संपादित
की जाने वाली विभिन्न क्रियाएं साधन मात्र है। यह सहज-स्वाभाविक क्रमिक विकास की
प्रक्रिया है, जिसे हम योग कहते हैं। योग चमत्कार दिखाने
की वस्तु नहीं, बल्कि मानव की बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं
का वह मापदंड है जो विकट और अव्यक्त ब्रह्मस्वरूप तक पहुंचने की दिशा में उसकी
जीवन-प्रणाली के रूप में अभिव्यक्त होता है। योग करने से शरीर और मन का संतुलन बना
रहता है। योग से मन, बुद्धि और जीवन को रोगमुक्त रखा जाता है
जिससे मानसिक शांति और शारीरिक बल मिलता है।
योग आत्मिक, मानसिक और शारीरिक संतुलन को बनाए रखने में सहायक है। आल इंडिया मेडिकल
इंस्टीट्यूट के प्रख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. एच. एस. वसीर ने योग के वैज्ञानिक
पहलू को अत्यंत रहस्यमय बताते हुए कहा है कि “विज्ञान मस्तिष्क, मन और शरीर के आंतरिक अंगों की जानकारी हासिल करता है। योग जीवन को
स्वस्थ और सुखमय बनाने का वह सूत्र है जो जीवन को संतुलित बनाता है। जीवन की सुखमय
यात्रा करने का मार्ग प्रशस्त करता है। शरीर जब व्याधिग्रस्त होता है, तब दावा लेने से नई व्याधि का भी जन्म होता है। जीवन के बाह्य शत्रुओं के
प्रति तो हम सतर्क रहते है; किन्तु अपने भीतर के शत्रुओं के
प्रति नहीं, जो हमारी जीवन-शक्ति को नष्ट करते है।”
डॉ. एन. आर. मित्रा विज्ञान, मानव और योग को लेकर हुए कुछ शोध कार्यों के आधार पर कहते हैं कि – “जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानवजाति एवं योग के बीच संबंध को दर्शाते है।
जैसा कि आप जानते है योग एक अति प्राचीन विज्ञान है, और
पूर्व में यह एक गुप्त विद्या भी थी। किन्तु अब यह विज्ञान गुप्त नहीं है। आज
शास्त्र और विज्ञान सम्मत योग लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाला बन गया है।
लोगों की आकांक्षा एक मात्र यही है कि हम स्वस्थ रहें। मानसिक रूप से संपूर्ण
तनावों से मुक्त हो जाएँ और हृदय में सदा आनंद का अनुभव करें। यह आकांक्षा मात्र
कुछ व्यक्तियों की नहीं है, बल्कि मानव मात्र की है।”
हरियाणा के योग एवं आयुर्वेद के ब्रांड
एम्बेसडर बाबा रामदेव कहते हैं कि – “योग का किसी भी पुजा पद्धति, धर्म एवं संप्रदाय से कोई से कोई संबंध नहीं है। दुनिया के 177 देशों में
से 44 मुस्लिम देशो ने भी योग को स्वीकार कर चुके हैं।” जब योग की चर्चा होती है, तो महर्षि पतंजलि की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। महर्षि पतंजलि के
अनुसार मनुष्य के अंदर जितनी वृत्तियां हैं, उनका निरोध ही
योग है। साथ ही पतंजलि का अष्टांग योग सर्वश्रेष्ठ और व्यवहारिक माना गया है। हालांकि
डॉ. ज्ञान शंकर सहाय अपने ‘योग शास्त्र में चिकित्सात्मक
आधार’ नामक अध्याय में लिखते हैं कि पतंजलि के योग में जितनी
चर्चा मिलती है, उससे क्या यह नहीं पता चलता कि इस रोग को इस
प्रक्रिया से, इस अभ्यास से आप दूर कर सकते हैं और इस आधार
पर हमने फिर हठयोग में इसकी खोज प्रारंभ की। हठयोग प्रदीपिका, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, हठयोग का आधार
ग्रंथ माना जा सकता है, उसमें कुछ बातें ऐसी मिली जो एक दिशा
निर्देशक तत्व के रूप में काम कर रहीं थी, जिसके आधार पर यह
कहा जा सकता हैं कि हठयोग ने रोग निवारण की चर्चा की है,
स्पष्ट रूप से की है। उसमें एक श्लोक मिलता है –
युवा वृद्धोअतिवृद्धों वा व्याधितो
दुर्बलोअपी वा ।
अभ्यासात् सिद्धिमाप्नोति
सर्वयोगेष्वंतद्रित: ॥
कोई भी युवा या वृद्ध या अतिवृद्ध या
रोगजर्जर अभ्यास के द्वारा योग में प्रगति कर कर सकता है, उपलब्धि पा सकता है। अब जब यहाँ कहा गया कि एक बीमार आदमी भी योग के
अभ्यास से सिद्धि प्राप्त कर सकता है, तो निश्चित रूप से उस
सिद्धि से पहले उस अध्याय में उस रोग के निवारण की क्षमता भी होगी। और इस आधार पर
डॉ. सहाय ने फिर और खोज शुरू की और हठयोग प्रदीपिका में एक श्लोक और पाया –
‘अस्तु वा मास्तु वा
मुक्तिरत्रेवाखंडित सुखम् ॥1।68॥
चाहे मोक्ष मिले या न मिले, हठ योग के अभ्यास से इसी जगत में अखंड स्वास्थ्य पाना संभव है। जब तक कोई
व्यक्ति शारीरिक तौर पर स्वस्थ एवं रोगमुक्त न हो, वह जीवन
का आनंद भला कैसे उठा पाएगा? अतः यह दर्शाता है कि योग में
रोग निवारण की अत्यंत प्रभावशाली क्षमता निहित है। डॉ. सहाय लिखते हैं कि आसनों से
मात्र छः रोगों का निवारण हो सकता है, जबकि षट् क्रियाओं से
छब्बीस रोग ठीक हो सकते हैं। आठ प्रचलित प्राणायामों – सूर्यभेद, शीतकारी, उज्जायी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा, एवं प्लाविनी में से चार उज्जायी, शीतली, भस्त्रिका और सूर्यभेद अतिमहत्त्वपूर्ण हैं। इन विभिन्न अभ्यासों के
महत्त्वपूर्ण चिकित्सीय लाभ हैं। इसी प्रकार मुद्राएँ भी मानव जीवन में सकारात्मक
प्रभाव डालती हैं। जहाँ तक पूर्ण रोग निवारण का प्रश्न है,
प्राणायामों, मुद्राओं एवं षट् क्रियाओं के सापेक्ष, आसन उतने प्रभावशाली सिद्ध नहीं होते। धौति क्रिया से दस रोगों में लाभ
होता है और उनका निवारण भी संभव है। बस्ति क्रिया भी एक बहुत प्रभावशाली योगाभ्यास
है, इससे आठ रोग ठीक होते हैं।
आज के इस उपभोक्तावादी संस्कृति और भौतिक
संसार में मानव जीवन का इंद्रिय व्यापार में, मनस, बुद्धि, चित और अहंकार के संसार में अधिक लिप्त हो
जाता रहा है, जिस कारण आज के मानव जीवन को अनेक समस्याओं का
सामना करते हुए अनेक दुःख झेलना पड़ रहा है। ये कष्ट हमारे शरीर में असंतुलन के रूप
में, व्याधि के रूप में ‘Disease’ के
रूप में प्रकट होते हैं। ‘Disease’ शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण
है। ‘Ease’ का अर्थ होता है आराम की अवस्था में होना। जब
मानव व्यक्तित्व के स्वाभाविक ‘Ease’ में व्यवधान उत्पन्न
होता है, तो यह व्यवधान ‘Disease’
कहलाता है। अतः व्याधि (Disease), चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो, आध्यात्मिक हो या भावनाओं से जुड़ा हुआ हो, यह और कुछ नहीं बल्कि मानव की शारीरिक और मानसिक सरंचना में मानव
व्यक्तित्व में असामंजस्य की एक अवस्था है। इस व्याधि को निर्मूल करने में योग
बहुत ही सहायक औषधि के रूप में सदियों से भारतीय संस्कृति में विद्यमान है। इस
प्रकार योग मात्र कुछ आसनों या प्राणायामों; या बंधों या
मुद्राओं और क्रियाओं का समूह नहीं है। बल्कि यह जीवन-यापन की कला है, जिसके द्वारा हम अपने आप को परम सत्ता की ओर ले जा सकते हैं। इस योग
यात्रा की दिशा में अपनी चेतन शक्ति, मन और बुद्धि का
इस्तेमाल करना होता है। योग का मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और मनोवैज्ञानिक व्यतक्तित्व पर भरपूर प्रभाव पड़ता है। यह उस
सृजनात्मकता के भी मार्ग खोल सकता है जिसकी अवश्यकता नए मूल्यों की पुनर्स्थापना
के लिए महसूस की जा रही है।
प्राचीन भारतीय समाज के संत-महापुरुष
अपने जीवन के सादगी और उच्च विचारों से ही दुनिया को दिशा दिखाते रहे हैं। इस तरह
के विचार पाश्चात्य देशों में भी अपनाए गए है। लेकिन तकनीकी और व्यावसायिक विकास
के विगत कुछ वर्षों में पूरी दुनिया में उथल-पुथल मचा दी है, जिससे जीवन मूल्यों की तरफ लोगों का ध्यान कम होता जा रहा है। यहीं कारण
है कि व्यक्ति अपने आप में अंतर्द्वन्द्व से घिरा हुआ है। जहां एक ओर हम समाज में
धन और सत्ता पाने की लालसा की प्रवृति को देख रहें हैं, वही
दूसरी ओर समाज का एक वर्ग इस धरातल से अत्यंत ही नीचे हैं,
और यह भिन्नता समाज में अशांति पैदा कर रही है। दुर्भाग्यवश आज दुनिया में उपलब्धियों
का मूल्यांकन धन एकत्र करना और दूसरे के ऊपर शक्ति के प्रयोग के रूप में लिया जा
रहा है। सामाजिक जीवन में व्याप्त विकारों और भिन्नताओं को जड़ से समाप्त करने के
लिए योग की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। योग के अनुभव और उसके व्यापक व्यावहार से
सदियों तक मानव जीवन में आत्म-सुख को प्राप्त किया जा सकता है। योग के शारीरिक, बौद्धिक और सामाजिक लाभ के वैज्ञानिक प्रमाण भी मिले हैं।
प्रोफेसर लाला इंदुभूषण, (मनोविज्ञान) भागलपुर विश्वविद्यालय का कहना है कि – मानसिक स्वास्थ्य या
व्यक्तित्व परिमार्जन का सबसे मान्य और व्यापक सिद्धांत मानते हुए आसक्ति-अनासक्ति
का सिद्धांत की चर्चा पर ज़ोर देते हैं। आसक्ति की अधिकता से व्यक्ति में राग, द्वेष और अहंकार होने के कारण व्यक्ति के अंदर चिंता, भय, आशंका और मनो शारीरिक व्याधियाँ आदि बनी रहती
हैं। इन सब रोगों से छुटकारा पाने के लिए आसक्ति की मात्रा को घटाना होता है। योग
में आसक्ति को घटाने के उपाय हैं। यौगिक क्रियाएँ हैं जिंकके अभ्यास से आसक्ति
स्वतः घटती है और अनासक्ति की भावना विकसित होती है। यह अनासक्ति संभव का विकास
करती है, स्नेह का विस्तार करती है,
अहंकार शून्यता पैदा करती है; मानसिक शांति और आनंद का अनुभव
कराती है। आज पूरी दुनिया में, जहां चारो ओर अशांति है, इसकी महत्ता और भी बढ़ती जा रही है।
आज हमारे देश में सबसे अधिक युवा वर्ग है, वह भ्रमित हो रहा है। ऐसे युवा वर्ग को, जो इस देश
भावी कर्णधार हैं, मार्गदर्शन की आवश्यकता है, जो विश्व योग दिवस के द्वारा संभव हो सकता है। भारत द्वारा प्रस्तावित
विश्व योग दिवस को पूरी दुनिया द्वारा समर्थन और मान्यता प्राप्त करना वर्तमान में
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह भारत के लिए बहुत ही गौरव की बात है कि आज भारत एक नए
अंदाज में विश्व योग दिवस के माध्यम से योग का संदेश देते हुए पूरे विश्व के
अंधकारमय जीवन में प्रकाश लाने का काम कर रहा है। महर्षि अरविंद और सत्यानंद ने
कहा है – “योग आने वाले कल की संस्कृति है।” स्वामी सत्यानंद जी की भविष्यवाणी –
“मैं स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ कि आने वाले कल में योग एक महाशक्ति के रूप में
उभरेगा तथा विश्व की घटनाओं को प्रभावित करेगा; और उन्हें
नया मोड देगा।” आज सच सावित हो रहा है। आज का युग योग के पुनर्जागरण का युग है। लेकिन
आज सारे संसार में हिंसा की लहर चल रही है। लोग हर दृष्टि से टूटते चले जा रहे
हैं। टूटे हुए लोगों से जोड़ने का काम नहीं होने वाला है। मानसिक तनाव के साथ ही
तरह-तरह की शारीरिक व्याधियाँ भी फैलती जा रही है। इस लिए शारीरिक-मानसिक तनावों
और व्याधियों की मुक्ति के लिए एक मात्र उपाय योग है। योग द्वारा अनेक लाईलाज
बीमारियों का सहज ही उपचार हो जाता है। मानसिक रोगियों को सामान्य बनाना, चेतन, अर्धचेतन और अचेतन मन से ऊपर एक चेतन है जिसे
योग के माध्यम से जगाया जा सकता है।
अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर संचालित हो रहे योग विद्यापीठों, संस्थाओं, प्रशिक्षण केंद्रों के संचालकों के अनुभव बताते हैं कि ‘आधुनिक जीवन पद्धति में मनुष्य अपने मन, बुद्धि, भावना, विचार आदि पर जब तक नियंत्रण नहीं कर पाता, तब तक शारीरिक रोगों से मुक्ति और सुख-आनंद की प्राप्ति नहीं कर सकता। आप
आसन, प्राणायाम, योग, निद्रा, ध्यान का अभ्यास करें तो एड्स तक से मुक्ति
मिल सकती है। लंदन स्थित स्वामी सत्यानंद योग विद्यालय की संचालिका स्वामी
प्रज्ञामूर्ति ने एड्स रोग से मुक्ति दिलाने में योग का प्रयोग कर सफलता प्राप्त
कर चुकी है। वे कहती हैं कि दवाओं से रोगों को दबा दिया जाता है। एड्स जैसे अनेक
रोगों का इलाज आधुनिक चिकित्सा पद्धति में नहीं है; मगर
पवनमुक्तासन, प्राणायाम, योगनिद्रा, ध्यान आदि का अभ्यास करें तो अनेक असाध्य रोगों पर नियंत्रण पाया जा सकता
है।
निष्कर्ष रूप में हम यह
कह सकते हैं कि योग मंत्रोच्चार करने, या चमत्कार दिखाने की विधि नहीं है, बल्कि योग विज्ञान एक ऐसी पद्धति है जो एक ऐसे ब्रह्मास्त्र की तरह मानव
जीवन को समृद्ध और शक्ति प्रदान करता है कि जिससे असंतुलित जीवन पद्धतियों का
अस्तित्व समाप्त हो सकता है, और अर्जुन की तरह अपने में
सकारात्मक भाव पैदाकर लौह मार्ग पर आगे बढ़ते हुए स्वस्थ जीवन की लोक मंगल यात्रा
को और सुखमय बना सकता है। योग विश्व के सभी लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण है। योग
तकनीक से स्वस्थ होने की और अंदर से प्रसन्न होने की वृत्ति का निर्माण होता है।
योग से तनाव और चिंता से मुक्त करवाने का कार्य करता है। वर्तमान में तनाव के कारण
कमजोरी, क्रोध, ईर्ष्या और अन्य पैदा
हो रही नकारात्मक भावनाओं को रोकने के लिए योग संपूर्ण मानव जीवन के लिए हितकर है।
Friday, 22 May 2015
लोकशक्ति और सोशल मीडिया: 21वीं सदी का एक सार्थक हस्तक्षेप
21वीं
सदी में सोशल मीडिया लोकशक्ति का एक परिचायक बनकर उभरा है। लोकशक्ति के रूप में
सोशल मीडिया एक ऐसा पहला मीडिया है, जिसने
पारंपरिक मीडिया के एकाधिकार एवं प्रभुत्व को तोड़ कर मीडिया का लोकतांत्रिकरण किया
है। इसने प्रत्येक व्यक्ति को ख़बरों के उत्पादन, संपादन और
वितरण की शक्ति प्रदान की है। लोक यानी जनता जो पहले सिर्फ दर्शक या उपभोक्ता हुआ करती
थी। सोशल मीडिया राजनैतिक, मार्केटिंग,
जनसंपर्क और व्यवसायिकता के क्षेत्र को प्रभावित किया है। आज विशाल बहुराष्ट्रीय
कंपनियां सोशल मीडिया और इंटरनेट के सहारे लोक जीवन को प्रभावित कर रही हैं और
इनके कारण विकास की नई नीतियां सरकार द्वारा सामने आ रही हैं। लेकिन सदियों से लोक
गायब रहा है। लोकशक्ति की मांग लोकतंत्र के सार्थक और विस्तार का स्वाभाविक चरण
है। इसमें लोक यानी जनता द्वारा सोशल मीडिया के आधुनिक नेटवर्किंग साइट्स जैसे
फेसबुक, टिवटर, यू-ट्यूब आदि का प्रयोग
कर लोकशक्ति को अर्जित किया जा सकता है।
लेकिन
सोशल मीडिया लोकशक्ति को एक सार्थक दिशा कब देगा? क्या
लोक जीवन सिर्फ वोट बैंक के रूप में पहले की भांति इस्तेमाल होते रहेंगे या लोकाधिकारों
को हासिल करने के लिए सोशल मीडिया जैसे सशक्त हथियार के साथ सड़क पर भी निकलेंगे। 21वीं
सदी में लोकशक्ति अर्जित करने की दिशा में सोशल मीडिया का सार्थक हस्तक्षेप अरब
स्प्रिंग, सीरिया, मिस्र की लोटस
क्रांति, अन्ना आंदोलन और दिल्ली विधान सभा चुनाव देखा जा चुका है। मैकचेस्नी का
कहना है कि इंटरनेट सार्वजनिक वस्तु है और यह सामाजिक विकास के लिए आदर्श माध्यम
है। यह अभाव को ख़त्म करता और उसे लोकतंत्र के हवाले कर देना चाहिए।
Monday, 5 January 2015
आधुनिक भारत
के निर्माण में सरदार वल्लभ भाई पटेल का योगदान
शम्भू शरण गुप्त, पीएच. डी. – जनसंचार, सत्र: 2012-13
Mob: 9921036740
आधुनिक भारत के निर्माण
में देश के अनेक नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है पर सरदार वल्लभभाई पटेल की
दृढ़ इच्छा शक्ति, साहस, आकांक्षाओं व संभावनाओं का योगदान दिन की
रोशनी की तरह साफ दिखती है।
आधुनिक भारत से आशय तमिल, तेलुगू,
कश्मीरी, असमी, नागा, मणिपुरी तथा क्षेत्र-जाति आधारित अस्मिताओं ने आहिस्ता-आहिस्ता ‘विविधता में एकता’ दर्शाते हुए आधुनिक भारत का
निर्माण किए। सर्वाधिक मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली, मिश्रित-अर्थव्यवस्था पर आधारित विकास प्रणाली इसके मूल स्तंभ थे। बात उन
दिनों की है जब अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करों’ की नीति पर एक क्षेत्र, वर्ग या संप्रदाय को दूसरे
क्षेत्र, वर्ग या संप्रदाय से बांटने का कुचक्र किया। अंग्रेजों
की नरम तुष्टीकरण की नीति ने जहां राजाओं, जमींदारों, महाजनों, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और अकाली दल
के प्रभाव सीमा को बढ़ाया तो वहीं राष्ट्रवादी विचार-धारा के मार्ग में गतिरोध भी उत्पन्न
किया। अंग्रेज धर्म के सहारे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन करने में सफल हो
गए, पर पटेल अंग्रेजों, मुस्लिम लीग व कम्युनिस्टों
की भारत को बाटने की विभेदकारी नीति को समझ चुके थे। जून 02,
1947 को लॉर्ड लुईस माउंटबैटन द्वारा अगस्त 15, 1947 को सत्ता हस्तांतरित करने की घोषणा की गई।
जुलाई 05, 1947 को रियासत
विभाग की स्थापना काल से ही सरदार पटेल ने जिम्मेदारी ली। पटेल ने 500 से भी ज्यादा रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने के लिए मात्र बातों
से मना लिए थे। अधिकांश रियासतों ने आजादी की पूर्व संध्या से पहले ही ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947’ पर हस्ताक्षर कर
दिए थे। पटेल उड़ीसा के 23 राजाओं से कहाकि - “कुएं के मेढक मत बनो, महासागर में आओ।” उड़ीसा के
लोगों की सदियों पुरानी इच्छा कुछ ही घंटों में पूरी हो गई। नागपुर के 38 राजाओं से मिलें, जिन्हें सैल्यूट स्टेट कहा जाता था,
यानी जब कोई इनसे मिलने जाता था तो उसे तोप छोड़कर सलामी दी जाती
थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत को आखिरी सलामी के साथ भारत से जोड़ा। वे
काठियावाड़ पहुंचकर वहां की 250 रियासतों को जोड़ा। 20-20
गांव की रियासतों का एकीकरण करते हुए एक शाम पटेल मुम्बई पहुंचे। आस-पास
के राजाओं से बात-चीत की और उनकी राजसत्ता को मजबूत भारत निर्माण से जोड़ते हुए
पंजाब चल दिए। पंजाब के पटियाला का खजाना देखा तो खाली था। फरीदकोट के राजा ने कुछ
आनाकानी की। पटेल ने फरीदकोट के नक्शे पर अपनी लाल पैंसिल घुमाते हुए केवल इतना
पूछा कि “क्या मर्जी है?” राजा कांप उठा। लक्षद्वीप समूह को
भारत में मिलाया। जो देश की मुख्यधारा से कटा हुआ था। हालांकि यह क्षेत्र
पाकिस्तान के नजदीक नहीं था। पटेल जानते थे कि इस पर पाकिस्तान दावा कर सकता है और
समय अंदर पटेल ने लक्षद्वीप में भारतीय नौसेना का एक जहाज भेजकर राष्ट्रीय ध्वज
फहरवाया। पटेल के 564 देशी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल
करने जैसी चुनौतीपूर्ण कार्य के बारे में हंसराज कॉलेज,
दिल्ली के इतिहास के प्रो. शरदेंदु मुखर्जी ने कहाकि – “पटेल दूरदर्शी सोच और
व्यवहारिक दृष्टिकोण वाले नेता थे। तभी वे भारत के एकीकरण की बड़ी समस्या को इतने
कम समय में हल कर सके थे।”
आखिरकार अगस्त 15, 1947 तक
केवल तीन रियासतें – हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर पटेल
ने सभी रियासतों को भारत में मिला लिया। पाकिस्तान बनने के बाद पटेल राष्ट्रवादी अवधारणा
पर आधारित भारत निर्माण की महत्वाकांक्षी योजना बना रहे थे। एक विराट व अखंड भारत
की सीमा रेखा खींचते हुए हैदराबाद और जूनागढ़ के नवाबों को भारत में शामिल होने की
बात सोच रहे थे कि अगस्त 15, 1947 को जूनागढ़ के नवाब ने अपनी
रियासत को पाकिस्तान के साथ जोड़ने का ऐलान कर दिया। इससे पटेल काफी पेशोपेश में पड़
गए। आजाद भारत के अंदर और कोई आजाद मुल्क हो, ऐसे शब्द पटेल
के शब्दकोश नहीं थे। पटेल ने नेहरू और माउंटबैटन से कहाकि - आज हमें फैसला करना है
कि हमारे शरीर पर जूनागढ़ के जो घाव पड़े है, उसे रिसने दे, अवाक रहने दे या उसका इलाज कराए? पटेल की बातें
नेहरू को अंदर तक झकझोर दिया। नेहरू ने जिन्ना पर जूनागढ़ को ब्लैकमेलिंग करने का
आरोप लगाया। पटेल ने सीधे माउंटबैटन से कहाकि - आप जब तक जूनागढ़ पर फौजी कार्यवाही
नहीं करंगें, तब तक जिन्ना के ब्लैकमेलिंग से नहीं बच सकते।
मेरा मानना है कि हमें जूनागढ़ के लिए कोई सख्त कार्यवाही करनी चाहिए, वरना हमारी नरमी, उसकी कीमत हमें कश्मीर में, हैदराबाद में भी चुकानी होगी। पटेल की बातों से रियासत विभाग के सचिव वी.
पी. मेनन भी सहमत थे। लेकिन माउंटबैटन का सलाह जूनागढ़ पर सैनिक कार्यवाही करना
भारत के लिए ख़तरा पैदा करना था, इसका अंदाजा पटेल को भी था
लेकिन जूनागढ़ में क्या चल रहा है, उसे जानने के लिए मेनन को
जूनागढ़ भेजा गया। जूनागढ़ के दीवान ने मेनन को नवाब से न मिलने के कई बहाने किया और
मुलाक़ात नहीं कराया। चलते-चलते मेनन ने दीवान शाहनवाज़ भुट्टों से कहाकि - नवाब के
इस फैसले से पूरे काठियाबाड की जनता काफी गुस्से में है, अगर
जनता का गुस्सा नहीं थमा और अगर कानून अपने हाथ में ले लिया तो इसका मतलब यह होगा
कि नवाब के वंश की और उनके राजवंश का खात्मा और इसके जिम्मेदार सिर्फ होंगें आप। मेनन
वहां की दो छोटी जागीरों मंगलौर और बावड़ियाबाड को भारत में मिलाते हुए दिल्ली आए।
दो छोटी जागीरों के भारत
में शामिल होने पर नवाब द्वारा वहाँ अपनी फ़ौजे भेजना भारत निर्माण के लिए एक
टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। इसी बात पर पटेल ने कहाकि - अब जूनागढ़ की नाकेबंदी
करनी चाहिए। लेकिन माउंटबैटन फौजी कार्यवायी करने के बजाय इसे यूएनओ में ले जाना
चाहते थे। इस बात पर आग बबूला होकर पटेल ने कहाकि – आप सोचते हैं, दूसरे मुल्कों के सामने साख बघारने
के लिए हमें यूएनओ जाना चाहिए, ये हमारी बहुत बड़ी भूल होगी, जूनागढ़ के सहारे पाकिस्तान ने हमारे खिलाफ जंग छेड़ी है और उसका सख़्ती से
हमें जवाब देना होगा। हमें अपने हक के लिए किसी के सामने अर्जी लगाने की जरूरत
नहीं है। माउंटबैटन की एक न सुनते हुए पटेल जूनागढ़ सीमा के इर्ग-गिर्द हिंदुस्तान
फौज की नाकेबंदी लगा दी। एक तरफ हिंदुस्तान की फौज और दूसरी तरफ अपनी ही जनता का
विरोध देख नवाब डर कर पाकिस्तान भाग गया। पाकिस्तान से मदद की गुहार के बाद कोई
मदद और जवाब न मिलने से शाहनवाज़ भुट्टों भारत के सामने समर्पण कर दिया।
दरअसल पटेल कश्मीर से
कन्याकुमारी तक एक राष्ट्रवादी भारत के निर्माण का सपना देख चुके थे। लेकिन
अंग्रेजी सूचना के बाद बड़ी रियासतें आजाद मुल्क का ख्वाब देखने लगी थी। हिंदुस्तान
के दक्षिण की एक बड़ी रियासत त्रावणकोर का दीवान सर सी. पी. रामास्वामी अय्यर आजादी
से दो माह पहले जून 11, 1947 को ‘त्रावणकोर आजाद हो गया’ का ऐलान कर चुका था। इस ऐलान से देश टूटने की आशंका बढ़ गई थी। लेकिन
त्रावणकोर की आम नागरिकों को सरदार पटेल के सपनों का भारत बनाना था। आम जनता अपने
महाराज के खिलाफ विरोध और बगावती तेवर के साथ दीवान के ऊपर जानलेवा हमला कर दी।
परिणामस्वरूप आजादी से तीन दिन पहले ही त्रावणकोर के महाराज भारत के साथ रहने को
तैयार हो गए। भारत के बीच में भोपाल था, जिसे जिन्ना
पाकिस्तान में शामिल होने के लिए कई लालच दे रखा था। बावजूद इसके माउंटबैटन के
निजी सलाह से भोपाल के नवाब हमीदउल्लाह ने सरदार पटेल को भारत के साथ शामिल होने
का एक पत्र भेजा। भोपाल तो मिल गया पर पटेल अपने सपनों के भारत से दो कदम अभी पीछे
थे। ब्रिटेन के बराबर तथा भारत को उत्तर से दक्षिण तक जोड़ने वाली रियासत हैदराबाद से
पटेल काफी परेशान थे। हैदरबाद का नवाब मीर उस्मान अली बहादुर जून 01, 1947 को स्वतंत्र
रहने का ऐलान कर चुका था। सलाहकार कासिम रिज़वी दिल्ली आकर पटेल को हैदराबाद को
भारत में शामिल होने के दिन में सपने देखने को भूल जाने जैसी चुनौती भी दिया। पटेल
ने कहाकि - हैदराबाद को बिना मिलाए आधुनिक भारत की कल्पना महज एक सपना है। पटेल ने
अपनी पहली और अंतिम मुलाकात में चुनौती देने वाले कासिम रिज़वी से कहाकि - हैदराबाद
का इतिहास इस बात की गवाही नहीं देती कि आप कभी आजाद मुल्क रहें, हैदराबाद हमेशा हिंदुस्तान की रियासत रहा है, और जब
अंग्रेज हिंदुस्तान छोडकर चले गए वैसे ही हैदराबाद को अपना आवाम हिंदुस्तान के हाथ
देना होगा, इसी में आपकी और आपके निजाम की भलाई है। बावजूद
इसके कासिम साहब! अगर आप खुदकुशी करने की सोच रहे हैं तो कोई कैसे रोके सकता है? इसी बीच पाकिस्तान ने हैदराबाद को 20 करोड़ रुपया उधार दे दिया और
हथियारें भेजने लगा। इसकी पक्की सूचना पटेल को मिल चुकी थी। पटेल ने हैदराबाद के
बगावती तेवर को समझने में तनिक भी देर नहीं की और पाकिस्तान पर सीधा आरोप लगाया।
हिंदुस्तान के ठीक मध्य
का हैदराबाद रियासत आधुनिक भारत के निर्माण में बहुत बड़ा पेंच बन चुका था। इस पेंच
के नकेल को बिना निकाले पटेल का सपना अधूरा था। इसी बीच हैदराबाद स्टेट का
प्रधानमंत्री लायक अली अपने सहयोगियों समेत दिल्ली आया और नेहरू-पटेल दोनों से
मिला। लायक अली पटेल से कहाकि - हैदराबाद का भारत में शामिल होना हमारे विकल्प में
नहीं है। लेकिन पटेल उसकी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे और उन्होंने लायक अली से
कहाकि - मैं आपको किसी उलझन में नहीं रखेंगे। हमारे यहां होने का कोई मतलब नहीं
हैं, हम आजाद हैदराबाद के लिए कभी
भी सहमत नहीं होंगे। जिससे भारत की एकता तार-तार हो, जिसे
हमने खून-पसीने से हासिल की है। फिर भी हम आपकी समस्याओं को सुलझाने के लिए
बात-चीत करने को तैयार हैं। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम कभी भी आजाद हैदराबाद
के लिए सहमत है। मैं आपको साफ लफ्जों में कह रहा हूँ कि ताकि आपके मन मे कोई शंका
न हो। आप सभी वापस जाइए और अपने निजाम से कहिए कि आखिरी निर्णय ले। ताकि पता चले
कि हम कहाँ खड़े है? जिस हैदराबाद की एक अलग हैसियत बनने जा
रही थी, जिस पर पटेल भी मन मार कर अपनी सहमति जाता चुके थे। लेकिन
निजाम की भारत के हर समझौते से बच निकलने के लिए बार-बार पैतरें बदलना दूसरी
टर्निंग प्वाइंट के रूप में भारत को मिली। पटेल ने हैदराबाद को भारत में शामिल
होने के लिए एक आखिरी खत निजाम को भेजा। शर्तों और मजमून को पढ़ने के बाद लायक अली
ने अपने निजाम से कहा कि - इसमें कुछ शर्ते हैं, मेरे ख्याल
से ये शर्ते अपनी भलाई के लिए हमें मंजूर कर लेनी चाहिए। लेकिन निजाम ने पटेल के
अपील को पूरी तरह से ठुकरा दिया। इसके बाद पटेल ने हैदराबाद को आधुनिक भारत में
मिलाने के लिए सितंबर 13, 1948 को भारतीय सेना भेजकर हैदराबाद
की चारों तरफ से नाकेबंदी कर दी। पाँच दिन तक युद्ध होने के बाद निजाम भारत के
सामने घुटने टेकते हुए भारत में शामिल हुआ। जिसे ‘आपरेशन पोलो’ नाम दिया गया है।
1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक
पत्र में पटेल ने चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान किया था और चीन का
रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन,
उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को देखकर
पटेल ने कहाकि यह किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा है।
उन्होंने यह भी लिखा था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा नई समस्याओं को जन्म दे सकता
है। उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री पटेल की दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया गया
होता तो तब की समस्याएं आज भारत के लिए नासूर नहीं बनती। 1950 में ही गोवा की स्वतंत्रता के संबंध में चली दो घंटे की कैबिनेट बैठक में लम्बी वार्ता
सुनने के पश्चात पटेल ने केवल इतना कहा “क्या हम गोवा जाएंगे, केवल दो घंटे की बात है।” पटेल की बात मानी गई होती तो 1961 तक गोवा की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा न करनी पड़ती।
मैनचेस्टर गार्जियन समाचार
पत्र ने लिखा था कि “पटेल के बिना गांधी जी के विचारों का व्यवहारिक प्रभाव कम
पड़ता और नेहरू के आदर्शवाद का क्षेत्र संकुचित हो जाता। पटेल स्वतंत्रता-संग्राम
के नायक के साथ स्वातंत्रयोत्तर आधुनिक भारत के निर्माता भी थे। पटेल ऐसे पहले
व्यक्ति थे जो एक क्रांतिकारी के साथ एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थे।” यदि
पटेल इतना दृढ़-निश्चयी नहीं होते तो क्या आजाद भारत का भूगोल ऐसा होता, यह एक सवाल
बन सकता है ? महात्मा गांधी ने पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, “रियासतों की समस्या इतनी जटिल
थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।” महात्मा गांधी से प्रेरित पटेल ने खेड़ा, बोरसाड़ व बारडोली के
किसानों को संगठित कर अंग्रेजों की औपनिवेशिक
नीतियों के खिलाफ अहिंसक, सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया। पटेल ने दांडी यात्रा व नमक सत्याग्रह में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत छोड़ो
आंदोलन के दौरान, उन्होंने गांधीजी का पूरी दृढ़ता से समर्थन किया। पटेल को अपनी हिन्दू
विरासत पर गर्व था परन्तु वे बहुत धार्मिक नहीं थे। पूरे भारत के मुसलमानों की
सुरक्षा और बेहतरी की गारंटी देने के लिये हमेशा तत्पर रहते थे। पटेल ने राष्ट्र की एकता के लिए धर्म में आस्था रखने व उसका
अनुपालन करने के अधिकार के अतिरिक्त अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार को भी
धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हिस्सा बनाने के लिये अपनी पूरी प्रतिष्ठा
दांव पर लगा दी। धर्म प्रचार के अधिकार को मूल अधिकार बनाने के प्रस्ताव का
बहुसंख्यक समुदाय के दक्षिणपंथियों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा था। पटेल ने यह
भी सुनिश्चित किया कि अल्पसंख्यकों को उनकी विशिष्ट भाषा, लिपि व संस्कृति का संरक्षण
करने का अधिकार मिले और भाषायी व धार्मिक अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थाओं की
स्थापना करने और उन्हें चलाने का संवैधानिक हक उपलब्ध हो।
सन् 1947 में दिल्ली में भड़के सांप्रदायिक
दंगे में
अपने
असमझौतावादी व त्वरित निर्णय लेने के स्वभाव के अनुरूप पटेल ने कड़ी कार्यवाही
करने की वकालत की, फिर चाहे उसके नतीजे कुछ भी हों। पटेल को जैसे ही यह खबर मिली कि हजरत
निजामुद्दीन की दरगाह में शरण लिये हुये हजारों मुसलमान आतंकित और असुरक्षित महसूस
कर रहे हैं, वे निःसंकोच बिना किसी भय के तुरन्त दरगाह
पहुँचे। उन्होंने दरगाह में लगभग 45 मिनट बिताए। पूरी
श्रद्धा के साथ पटेल ने दरगाह में नमन किया और मुसलमानों की सुरक्षा के पूरे
इंतजामात करके ही लौटे।
पूर्वी पंजाब में सिक्ख बहुत गुस्से में थे। उनकी
आँखों में खून उतर आया था। पटेल इस इलाके के कई शहरों में स्वयं पहुँचकर सितम्बर 30, 1947 को
सिक्खों से यह अपील किए कि वे समावेशी भारत की इज्जत पर बट्टा न लगायें और उसकी आन-बान-शान
को कलंकित न करें। उन्होंने कहा “वीरों को यह शोभा नहीं देता कि वे निर्दोष और
निहत्थे पुरूषों, महिलाओं और बच्चों का कत्ल करें। नतीजा यह
हुआ कि पूर्वी पंजाब के मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षित पश्चिमी पंजाब जाने दिया
गया। समावेशी भारत के निर्माता पटेल बाबरी मस्जिद में रात के अंधेरे में भगवान राम
की मूर्तियाँ स्थापित किये जाने से अत्यन्त उद्वेलित थे। पटेल एक विशाल और सांझा
भारतीय राष्ट्रवाद के पक्षधर थे न कि धर्मगत, जातिगत या नस्ल-आधारित संकीर्ण भारत के। उन्होंने उत्तर
प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्दबल्लभ पंत को बल के एकतरफा प्रयोग का मुकाबला बल से
करने की सलाह दी थी।
भारत को आजाद हुए अभी पाँच साल भी नहीं हुए थे
कि भाषा के आधार पर चारों तरफ बटवारें जैसा माहौल, हिंसा, आगजनी, पुलिस फायरिंग और अखबारों के पन्ने इस तरह के ख़बरों से भरे होते थे। इस
समाधान के लिए ‘धर आयोग’ के बाद नेहरू ने स्वयं, पटेल और कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि
सीतारमैया को शामिल कर एक ‘जेवीपी’ नाम से नई कमेटी का गठन किया। इस कमेटी के
रिपोर्ट ने भाषा के आधार पर राज्यों की गठन की माँग को जायज बताते हुए आंध्र
प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक और केरल
राज्य का गठन किया। सरदार पटेल अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर निकलकर आधुनिक भारत को
एक स्वर्णिम अवसर दिया। आज भारत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
क्षेत्रों के साथ वैश्विक, विज्ञान एवं तकनीक, शिक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी,
परिवहन, स्वास्थ्य, कृषि, ऊर्जा, पर्यटन आदि से लेकर सामरिक और नागरिक
जरूरतों के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास और नवाचार के क्षेत्र में प्रगति की
है। इसके साथ ही वित्त, बैंकिंग, सांस्कृतिक, मनोरंजन और अन्य क्षेत्रों में प्रोद्यौगिकी के साथ अनुसंधान का समन्वय
कर रहा है। आज भारत स्वयं को डिजिटल इंडिया बनाने की ओर अग्रसर है। साढ़े चार हजार
से ज्यादा सरकारी और गैर-सरकारी उन्नत शोध संस्थान में हजारों भारतीय वैज्ञानिक
प्रतिभाएं नई-नई प्रौद्योगिकी की खोज में लगे हुए हैं। सितंबर 24, 2014 को ‘इसरो’ ने पहले ही प्रयास में मंगल ग्रह की कक्षा में
अपने अंतरिक्ष यान को सफलतापूर्वक स्थापित किया। दुनिया का पहला ई-मेल प्रोग्राम ‘हॉट मेल’ बनाने वाला सबीर भाटिया भारतीय है। आज
दुनिया की सबसे बड़ी अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी ‘नासा’ में 36 फीसदी वैज्ञानिक भारतीय हैं। अमेरिका में 38 फीसदी डॉक्टर और 12
फीसदी वैज्ञानिक भारतीय हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बड़ा रसूख रखने
वाली आईटी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के 28 फीसदी भारतीय है तथा उच्चतर अधिकारी सत्य
नदेला कुछ वर्ष पूर्व भारतीय थे। आईबीएम के 17, इंटेल के 13 और जिराक्स के 13 फीसदी
अभियंता/वैज्ञानिक भारतीय है। आज का केरल विदेशी मुद्रा अर्जित करने में अब्बल है
तो वहीं हैदराबाद हाईटेक के क्षेत्र में भारत का अग्रणी राज्य है।
आज विश्व का कोई देश ऐसा नहीं है जहाँ भारतीय
मूल के वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों व शिक्षार्थियों ने अपनी पहचान स्थापित नहीं की है। भले
ही हमनें गूगल, फेसबुक इत्यादि का आविष्कार नहीं किया है,
किन्तु यह सच है कि इन कंपनियों में काम करने वाले कई विशेषज्ञ भारतीय हैं। फ्रांस
की प्रयोगशाला में कई वर्षों से हिग्ग्स बोसॉन की तलाश में चल रहे परीक्षणों में
25 फीसदी से अधिक वैज्ञानिक भारतीय हैं। आखिरकार दुनिया में कीर्तिमान स्थापित
करने वाले तमाम नागरिक भारत के उन क्षेत्रों से भी हैं जिनका एकीकरण कर पटेल साहब ने
32 लाख वर्ग किलोमीटर का स्वरूप दिया। आधुनिक व शक्तिशाली भारत के वास्तविक
निर्माता, संस्थापक और महान क्रांतिकारी सरदार वल्लभभाई पटेल
अपनी बेबाक टिप्पणियों और रियासत मंत्रालय के प्रभारी के रूप में महान कार्य करते
हुए आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान दिए वैसा आज तक कोई भी राजनीतिज्ञ नहीं कर
पाया। विश्व इतिहास में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने इतनी बड़ी संख्या में
राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो।
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